कुछ रोज़ पहले लेखक
ने अपना चालीसवाँ जनमदिन मनाया था या यूँ कहें कि 39 सावन भादों और बसंत पूरे कर लिये|
पिछले कुछ सालों की तरह इस साल भी दिन गहमागहमी भरा रहा, सभी प्रकार के संचार माध्यमों
फ़ोन, मेसेज, फ़ेसबुक, ईमेल से दिन भर बधाइयों का ताँता लगा रहा, बहुत से चाहने वालों
और कुछ ना चाहने वालों ने भी अपने बधाई संदेश भेजे| सूचना क्रांति के इस दौर में ये
कुछ आवश्यकता से अधिक आसान जो हो गया है| खैर साहब, और साहिबाएँ भी, अब इस सब से इतर,
मुद्दे पर आते हैं| दिन के अंत मे लेखक के लिये जो राहत की बात थी वो यह की उसके जीवन
का तीसवां दशक समाप्त हो गया है, वह चालीसवें का आरंभ कर रहा है और अगले साल वो शान
से "नॉटी अट फॉर्टी" क्लब की सदस्यता ग्रहण कर लेगा|
स्वाभाविक है कि आपके
मन मे ये प्रशन आ गया होगा कि उम्र बढ़ने पर भी ऐसा संतोष और सुख, वो भी बात जब एक
दशक के बदलाव की हो! एक ओर दुनिया उम्र कम दिखने (कम तो नही कर सकते) भर के लिये अपनी
तनख़्वाह से अधिक खर्च कर रही है, बाबा से लेकर बेबी तक सब प्रयासरत हैं, कि आख़िर,
कैसे कम उम्र दिखा जाये, और यह मानस है कि चालिसवें की शुरुआत भर से फूला नही समा रहा|
अब मैं आपको अपनी वो व्यथा प्रस्तुत करता हूँ, जो मैने पिछले 10 सालों मे अनुभव की
है| मुझे लगता है कि कमोबेश अनुभव सभी का थोड़ा कम या ज़्यादा ऐसा ही रहा होगा, परंतु
शायद किसी ने अभिव्यक्त ना किया हो, कम से कम मेरे सीमित ज्ञान क्षेत्र में तो नही
ही आया है| अमूमन, हमारे देश में 30 की उम्र तक आपका विवाह हो चुका होता है, ना ना
आप नही चुके होते, विवाह हो चुका होता है| कुछ लोग अपनी सामर्थ्य अनुसार देश के जनसंख्या
मिशन में अपना बहुमूल्य योगदान भी दे चुके होते हैं| जाहिर सी बात है कि आप बाज़ार,
मॉल, ऑफिस या कहीं भी वो "एलिजिबल बॅचलर" की श्रेणी से बाहर आ चुके होते
हैं, अविवाहित है भी तो, "एलिजिबल" शब्द आगे से हट गया होता है| कल तक भैया
कहने वाली कन्याएँ अब अंकल कहने लगी हैं और इन कन्याओं का आयु वर्ग जो अभी तक 12 तक
सीमित था, वो 21 या उससे भी आगे चला गया है| कहने को आप मात्र 10 साल बड़े हैं और मज़े
की बात ये है कि 12 - 21 वाली इन कन्याओं के पिता भी चालिसवें में होते हैं, परंतु
आप उनको अंकल नही कह सकते, क्या साहब, फ़र्क़ तो यहाँ भी उतना ही है, तो फिर हमारे
साथ ही ऐसे दोहरे मापदंड क्यों? बात लड़कों की करें तो 20 - 22 के लड़के जो कल तक पार्क
में साथ ज़ोर आज़माइश करते थे, वो भी अब अंकल कहने लगे हैं| कहते है अंकल अब आप वॉक
किया करो| जो हम उम्र थी या थे, वो सब रिश्ते बनाने में अधिक विश्वास करने लगे है,
मिलते ही कहते है, चाचा को प्रणाम करो, मामा के पैर छू लो, फलाँ फलाँ|
ऐसा नही कि ये भेदभाव
और दोहरे मापदंड आपके निजी जीवन तक ही सीमित हो, आपके कार्य क्षेत्र में भी स्तिथि
कुछ ज़्यादा भिन्न नही होती| आप कुछ 10 से 15 सालों का अनुभव लेकर, "दी ग्रेट
इंडियन मिड्ल क्लास" के जैसे, मिड्ल मॅनेज्मेंट के आस पास होते हैं| आपको
"सर" कहने वालों की संख्या थोड़ी बढ़ गयी होती है| आपके कनिष्ठ (जूनियर)
अब आप से थोड़ी दूरी बनाने लगे है और मलाल इस बात का है कि ऑफिस का सबसे रंगीन हिस्सा
यही होता है| बात बात मे पार्टी, फिल्म का कार्यक्रम, वीकेंड मे मस्ती, ये सब यहीं
होता है, परंतु अब आपको ऐसे निमंत्रण कम ही मिलते है| और जनाब बात आपके वरिष्ठों (सीनियर्स)
की करे तो वहाँ आप खुद सहज महसूस नही करते, यहाँ भी निमंत्रण कम ही मिलते है, मिलते
भी है तो सारा समय सर सर कहने मे निकल जाता है| लगे हाथ आपके आयु वर्ग के साथियों की
भी कर ले तो वो सभी आपके जैसे, डॉक्टर, स्कूल, दाल - चावल की खरीददारी और घर गृहस्थी
की ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हैं|
इस दौर मे एक बहुत
महत्वपूर्ण बात होती है, ये वो समय होता है जब आपके बाल या तो आपका साथ छोड़ना आरंभ
करते है या उनका रंग साथ छोड़ रहा होता है| ये तथ्य उपर कही सभी परिस्तिथियो मे निर्णायक
प्रभाव रखता है, इसीलिये इसको विशेष स्थान दिया है|
अब अपनी भावनाओं की
अभिव्यक्ति को विराम देते हुए, बस यही कहूँगा
की पूरी कहानी का मजमून / पूरे प्रसंग का निष्कर्ष यही है कि उम्र का तीसवाँ दशक तिरस्कार
और व्यथा से भरा होता है| कदम कदम पर आपको दोहरे मापदंडो से दो चार होना पड़ता है,
चाहे अनचाहे अपमान के घूँट भी पीने पड़ते है| एक ऐसा दौर जब आप थोड़ा असामाजिक होना
पसंद करते हैं| परंतु बढ़ती उम्र और समाज का व्यवहार आपको यथार्थ के धरातल पर ले ही
आता है| "बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय", अब इस पंक्ति का आश्र्य
लेते हुए समाप्त करता हूँ और चालिसवें दशक के सुखद स्वपनों मे लीन होता हूँ|